रोमियों 8:1-17
(1) सो अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं: क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं।
(2) क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की, और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्रा कर दिया।
(3) क्योंकि जो काम व्यवस्था शरीर के कारण दुर्बल होकर न कर सकी, उस को परमेश्वर ने किया, अर्थात् अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में, और पाप के बलिदान होने के लिये भेजकर, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी।
(4) इसलिये कि व्यवस्था की विधि हम में जो शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं, पूरी की जाए।
(5) क्योंकि शरीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगाते हैं।
(6) शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है।
(7) क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है, और न हो सकता है।
(8) और जो शारीरिक दशा में है, वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।
(9) परन्तु जब कि परमेश्वर का आत्मा तुम में बसता है, तो तुम शारीरिक दशा में नहीं, परन्तु आत्मिक दशा में हो। यदि किसी में मसीह का आत्मा नहीं तो वह उसका जन नहीं।
(10) और यदि मसीह तुम में है, तो देह पाप के कारण मरी हुई है; परन्तु आत्मा धर्म के कारण जीवित है।
(11) और यदि उसी का आत्मा जिस ने यीशु को मरे हुओं में से जिलाया तुम में बसा हुआ है; तो जिस ने मसीह को मरे हुओं में से जिलाया, वह तुम्हारी मरनहार देहों को भी अपने आत्मा के द्वारा जो तुम में बसा हुआ है जिलाएगा।
(12) सो हे भाइयो, हम शरीर के कर्जदार नहीं, ताकि शरीर के अनुसार दिन काटें।
(13) क्योंकि यदि तुम शरीर के अनुसार दिन काटोगे, तो मरोगे, यदि आत्मा से देह की क्रियाओं को मारोगे, तो जीवित रहोगे।
(14) इसलिये कि जितने लोग परमेश्वर के आत्मा के चलाए चलते हैं, वे ही परमेश्वर के पुत्र हैं।
(15) क्योंकि तुम को दासत्व की आत्मा नहीं मिली, कि फिर भयभीत हो परन्तु लेपालकपन की आत्मा मिली है, जिस से हम हे अब्बा, हे पिता कहकर पुकारते हैं।
(16) आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं।
(17) और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, बरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं।।
जब हम लोग यीशु मसीह को
अपने उद्धार कर्त्ता के रूप में ग्रहण करने के बाद हमारे जीवन में किस न किस तरह से परिवर्तन तो आता है
और अपने अनुभाव के द्वारा महसूस होता है, जान लेता है। लेकिन हमारे अनुभाव में एक
कमी यह है कि परमेश्वर के कामों को अपने जीवन तक ही सिमित रखता है। इसलिये हम
बाइबल के द्वारा परमेश्वर के योजना, उद्देश्य को जान लेना अवश्य है। रोमियों की
पत्री 8वीं अध्याय के पहला पद से लेकर 17वीं पद के बीच में हम परमेश्वर के अद्भुत योजना को देख
सकते है जो हमारे कल्पना से बाहर है।
परमेश्वर ने अपने एकलौता
पुत्र यीशु मसीह को पापमय शरीर की समानता में और पापबलि होने के लिये भजकर, शरीर
में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी। मतलब जो हमारे पाप के लिये यीशु मसीह ने दण्ड लिया
है। एक ही पाप के लिये एक ही बार दण्ड दे सकते हैं। यीशु मसीह परमेश्वर के सामने
हमारे पाप के लिये सजा मिल गया है इसलिये हमारे पास दण्ड नहीं बचा हुआ है। जब हम
यीशु मसीह पर विश्वास करना या विश्वास रखने का अर्थ यह है कि यीशु मसीह के क्रुस
का सजा मेरा ही था पर उसने मेरे बदले ले लिया है और हम लोग विश्वास से सजा में
समिल होकर पुराना जीवन को, शारीरिक जीवन को क्रुस पर चढ़ाया दिया है। तब हम लोग
यीशु मसीह में, यीशु मसीह मुझ में रहना शुरू हो जाता है। यीशु मसीह के साथ चलना है
तो शारीरिक जीवन को छढ़ना है जो स्वर्थी जीवन है। अब तक जीवन के केंद्र में अपने
को रखकर अहंकारी जीवन जिया है यहाँ से उठकर आत्मिक जीवन जो यीशु मसीह को, उसके
बातों को, परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के केंद्र में ले आना है। स्वर्थी जीवन से
परार्थी जीवन की ओर फिरना है। क्योंकि स्वर्थी जीवन मृत्यु है, स्वर्थी जीवन
परमेश्वर से बैर रखता है, स्वर्थी जीवन परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। मृत्यु
हम लोगो को परमेश्वर से अलग कर देता है, परमेश्वर से बैर रखने से हमारे जीवन में
खुशी नहीं आ सकता है।
“किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उन में
से छुटे ने पिता से कहा कि हे पिता संपत्ति में से जो भाग मेरा हो, वह मुझे दे दीजिए। उस ने उन को अपनी संपत्ति बाँट दी। और बहुत दिन न बीते थे
कि छुटा पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके एक दूर देश को चला गया और वहाँ कुकर्म में अपनी संपत्ति
उड़ा दी। जब वह सब कुछ खर्च कर चुका, तो उस देश में बड़ा अकाल
पड़ा, और वह कंगाल हो गया। और वह उस देश के निवासियों में से
एक के यहाँ जा पड़ा : उस ने उसे अपने खेतों में सूअर चराने के
लिये भेजा। और वह चाहता था, कि उन फलियों से जिन्हें सूअर खाते
थे अपना पेट भरे; और उसे कोई कुछ नहीं देता था।”-लूका 15:11-16 इस दृष्टान्त में छोटा बैठा का
समस्या यह नहीं है कि उस देश में अकाल आया है, कंगाल हो गया है, उस देश के लोग
निर्दय है। उसका समस्या के मूल यह है वह अपने पिता के इच्छा के विरोध काम किया
अपने पिता के घर को छोड़ कर दूर देश में अपने स्वर्थी जीवन जीने के लिये गया है
इसलिये इस छोटा बैठा के लिये पिता के घर में वापस जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं
है।
जब हम पिता के घर में जाते
है परमेश्वर से मेल खाते है आत्मिक जीवन जीना शुरू होता है। आत्मिक जीवन, परार्थी
जीवन जीवन और शांति है। जीवन मिलाप है यीशु मसीह के द्वारा हम परमेश्वर से मेल
खाते है उस में जीवन है। शांति जब हम लोग उच्चित जगहों में उपस्थिति होने से मिलता
है। मनुष्य के लिये सब से उच्चित जगह परमेश्वर के पास है क्योंकि उसने मनुष्य को रचाया
है। उसने मनुष्य को अपने स्वरूप में अपने सामानता में सृष्टि किया है ताकि मनुष्य
के साथ संगति कर सके। पर मनुष्य परमेश्वर के साथ रहना नहीं चाहा तो पाप किया और
परमेश्वर से अलग हो गया। अलग होना मृत्यु है। तब से मानव जाति शांति की खोज में है
क्योंकि उच्चित जगहों को छड़कर किसी और जगहों में पहुँच कर शांति को खोज रहा है पर
जब तक परमेश्वर के पास नहीं आएँगा तो कभी सहीं शांति को नहीं मिल सकता है।
यीशु मसीह को मेरे अंदर में
ग्रहण करना है यही परमेश्वर के द्वारा तैयारी किया हुआ एकमात्र रास्ता है जो
हम्हें परमेश्वर के पास ले जाते है। जब हमारे अंदर में यीशु मसीह को ग्रहण करते है
तो ऐसा परिवर्तन हमारे जीवन में आते हैं।
11.
जीवन की पहचान (9) यदि किसी में मसीह का आत्मा नहीं तो वह उसका जन नहीं।
अब हम अकेला नहीं है हम परमेश्वर के जन हो गया है। इस कारण
हम लोग आज यहाँ है। और परमेश्वर को अब्बा कहा कर पुकारते हैं। देखिये यह कितना
अद्भुद बात है। पापी मनुष्य पवित्र परमेश्वर को पिता कहा कर उनसे विन्ती करते है
तो उसकी बात सुन सकते है।
जब हमारे जिन्दगी में कब सब से मुश्किल लगता है। हाँ जब
अकेलापन महसुस होता है तो। लेकिन जो लोग यीशु मसीह को ग्रहण किया, जिसके पास मसीह
का आत्मा है तो कभी अकेलापन में नहीं पाड़े रहेगा। हम परमेश्वर के जन हो गया।
22.
जीवन की उद्देश्य (10) तो देह पाप के कारण मरी हुई है; परन्तु आत्मा धर्म के कारण जीवित है।
जब तक हमारे जीवन में प्रभु की आत्मा नहीं आते हैं तो हम कभी परार्थी जीवन
नहीं जी सकते हैं। हमारे जीवन की हर कार्य के आखिर उद्देश्य स्वयं ही है। जरा
सोचये धरती पर जितने लोग है यह सब लोग सिर्फ अपने लिये जीते तो कितना खरब है वह तो
हमारे जीवन में रोज-रोज देखते हैं अनुभाव होते हैं। पर प्रभु की आत्मा हमारे पास
आते हैं तो हमारे जीवन परिवर्तन होकर दुसरे को प्रेम कर सकते है, दुसरे की भलाई को
कामना कर सकते हैं।
33.
जीवन की परिणाम (11) वह तुम्हारी मरनहार देहों को भी अपने आत्मा के द्वारा जो तुम में बसा हुआ है जिलाएगा।
जीवन, जिन्दगी में जो कुछ
करता है उसका अखिर फल मृत्यु है, जितना पैसे कमाये फिर भी उसका अंत मृत्यु है,
जितना पद कमाये वह भी मृत्यु को नहीं संभाल पाते हैं। लेकिन आज हम्हें परमेश्वर के
वचन बताते है कि जिसके पास प्रभु का आत्मा है तो हम्हें मृत्यु से जिलाएगा। हम्हें
मृत्यु से जिलाएगा। यदि हम इस बात पर विश्वास है तो हमारे जीवन बदल जायेगा। हम लोग
स्वार्थी जीवन से उठकर दुसरो के लिये भी जी सकते हैं। यीशु मसीह ने हम्हें नया
आज्ञा दिया है वह है परोसियों को अपने समान प्यार करों। यीशु मसीह को प्रेम करना
है तो हम उसके आज्ञाओं को पालन करना है। तो हम्हे परमेश्व के पुत्र कहला जाऐगा।
पुत्र कहला जाता है तो वारिस भी है वह भी यीशु मसीह के साथ संगी वारिस है। जब हम
उसके साथ दुःख उठाएँ तो उसके साथ महिमा भी पाएँ। यही परमेश्व के प्रेम है परमेश्वर
के असिम अनुग्रह है।
मैं यीशु मसीह के लहू के द्वारा खरीदा हुआ परमेश्वर के संतान हूँ और पवित्र आत्मा के साथ चलने वाला स्वर्गीय वारिस हूँ।